हम आदिवासी थे, आदिवासी है, ओर आदिवासी रहेगेँ...
जिनके पास कटु सत्य से सामना करने का साहस है, ऐसे सभी सुधीजन आदर के साथ आमंत्रित हैं.. हमारी तहजीब को तुमने विज्ञापनों में उतारा हमारी नैसर्गिक परम्पराओं ने तुम्हारा मनोरंजन संवारा, हमारी संस्कृति, तुम्हारी शादी में नाचती-बजाती है हमारी जांगर तोड़ मेहनत तुम्हारे आलीशान घरों में कम मजदूरी पाती हैँ। हमारी कलाकृतियाँ, तुम्हारे ड्राइंग रूम की शोभा बनती हैं हमारी सेल्फी, अब तुम्हारे मेहमानों के लिए भी जमती है। हमारे लिए नमक भी तुम्हारी राजनीति का सौदा हो गयी आदिवासी होने का सर्टिफिकेट मुख्यमंत्री का ओहदा हो गयी... जंगली उत्पाद तुम्हारे इम्पोर्ट- एक्सपोर्ट के धंधे बन गए हमारी बदौलत न जाने कितनों के महल तन गए... हमारे अर्धनग्न आधे पहनावे तुम्हारी दर्शनीय वस्तु हो गयी ओ मनुवादी शहरी जीव! तुमसे मिलकर हमारी तो ओरिजिनलिटी खो गयी... हमारे पर्वतों, खदानों के लौह अयस्क तुम्हारे उद्योग बन गए हम भूखे रहे, हमारी जड़ी-बूटियाँ तुम्हारे उत्तम भोग बन गए, हमारी निःस्वार्थता और भोलेपन का कितना ओर दोहन करोगे ? क्या अब हमारी लंगोटी का भी चीर हरण करोगे ?? हमारी वेशभूषा पहनकर तुम्हारे नेता तस्वीरें खिंचवाते हैं बिंदास अल्हड़पन की फोटो काले बाज़ार में बिकवाते हैं। हमारी संस्कृति की सेहत को ...तुमने दूषित किया है सच मानो तो हमरे शोषण ने तुम्हें पोषित किया हैँ नकली आदिवासी का ढोंग करते तुम्हें शर्म नहीं आती ? अब तो तुम्हारी गंध भी हमारे नथुनों को नहीं भाती, हम आज भी कुपोषित हैं, शोषित हैं ...पीड़ित हैं पर अपनी संस्कृति पर आज भी गर्वित हैं। हम चुप हैं अपनी पहचान खो जाने के डर से तुमने कहाँ देखे अभी हमारे टंगिये और फरसे... हमारे सम्पूर्ण विकास के सारे पैसे बिचौलिए खा जाते हैं काम हो न हो, पेपरों में आंकड़े जरुर सूचियोँ मेँ आ जाते हैं। कभी झांको तो सही हमारे बच्चों को टीका लगा या नहीं ? उनका आवंटित मध्याह्न भोजन उनके अंग लगा या नहीं ?? रक्ताल्प पीड़ित किशोरियाँ कितने अपरिपक्व बच्चे जनती हैं? कितने नवजातों की कितनी सालगिरह मनती हैँ ?? तुम्हारे शोधपत्र और आंकड़ों के ज़खीरे हमारा पेट नहीं भरते तुम्हारी सियासत हमारे नून-तेल-लकड़ी का इंतज़ाम नहीं करते। अपनी संस्कृति के अस्तिव को ज़िंदा रखते हुए बेहतर ज़िन्दगी जी सकें ऐसा कुछ कर सकते हो तो बोलो ....? वरना मनूवादियो अच्छी तरह कान- मकान खोलकर सुन लो जैसे कई से भी यूरोप-अफगान व अन्यं विदेशी जमीँ पर से आये हो, तुम भी अपने रास्ते हो लो... जिनके कान- मकान हों और जो सुन सकते हों उनसे ही कहेंगे हम आदिवासी थे, आदिवासी हैं और आदिवासी ही रहेंगे..! -हंसराज मीणा
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